25 फ़रवरी 2013

"बेचूबीर का अद्भुत मेला"


‘आस्था या अंधविश्वास ’

बंगाल का जादू, बस्तर का टोना तो काफी मशहूर है, साथ ही ऐसे भी कई स्थान, चौरियां, ब्रह्मस्थान, दरगाह आदि हैं, जो भूत-प्रेतों को भगाने के कारनामों के लिए मशहूर हैं। इसके अलावा भी कुछ स्थान ऐसे भी हैं जो बेऔलाद मां-बाप के लिए वरदान साबित हो रहे हैं। कहते हैं कि यहां आस्था व विश्वास से पूजा आदि करने से उनकी सूनी गोंद भर जाती है। बेचूबीर बाबा की चौरी भी इसी क्रम में प्रसिद्ध है, यह स्थान भी प्रेंत बाधा से मुक्ति के अलावा संतानोत्पति के लिए भी विख्यात है।
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जनपद अंर्तगत चुनार तहसील में अहरौरा से लगभग 7-8 किलोमीटर दूर पश्चिम-दक्षिण में नक्सल प्रभावित क्षेत्र स्थिति बरही गांव के जंगली इलाके में बेचूबीर बाबा की चौरी है। यहां कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से एकादशी की सुबह तक वर्ष में एक बार विशाल मेला लगता है। यहां दूर-दराज से आए लोग तीन दिन तक रूककर पूजा आदि करते है। अंततः दशमी-एकादशी की भोर बाबा की मनरी बजने के बाद पुजारी के द्वारा फेंके गए चावल के चंद दाने प्रसाद के रूप में लेकर घर वापस लौटते हैं।


बरही गांव में बेचूबीर बाबा की चौरी स्थापित होने की अपनी अलग ही कहानी है। यादववंशी बेचूबीर मूलरूप से मध्य प्रदेश में सरगुजा के निवासी थे। बताया जाता है कि मिर्जापुर के अहरौरा में जहां आज जरगो बांध का विशाल जलाशय है, वहां पहले छोटे-छोटे अनेक गांव बसे थे। इन्हीं में एक गांव था गुलरिहां। वर्षों पहले बेचूबीर अपने परिवार के साथ आकर यहां बस गए थे। बेचूबीर भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। वह हमेशा अपने आराध्य देव की पूजा-पाठ करने में लगे रहते थे।
बेचूबीर बहुत ताकतवर और कुशल मल्ल योद्धा भी थे। जनपद का तत्कालीन प्रख्यात योद्धा वीर लोरिक बेचूबीर का परम भक्त था। बताते है एक बार बेचूबीर और लोरिक बरही के घनघोर जंगल में साधना कर रहे थे। उसी समय कुछ शत्रुओं ने अचानक वहां आक्रमण कर दिया, लोरिक तो वहां से भाग खड़ा हुआ किन्तु बेचूबीर की साधना नहीं टूटी और वह जंगल में अकेले ही रह गए।


कुछ देर बाद घूमते-घूमते एक शेर वहां पर आ गया। घनघोर जंगल में बेचूबीर को अकेला देख शेर ने उन पर आक्रमण कर दिया, तो उनका ध्यान टूटा। अदम्य शक्तिशाली होते हुए भी उन्होंने शेर का वध नहीं किया, बल्कि तीन दिनों तक लगातार उसका प्रतिरोध करते रहे, फिर भी शेर भागने का नाम नहीं ले रहा था। आखिर तीन दिनों में बेचूबीर को बुरी तरह घायल करने के बाद शेर भी वहीं गिरकर बेहोश हो गया।
उसी समय बेचूबीर को खोजते हुए कुछ लोग वहां आ गए। घायल देखकर सब उन्हें लेकर गांव की तरफ जाने लगे तो, क्षीण स्वर में बेचूबीर बोले, “मरने के बाद मेरे शरीर को आग के हवाले मत करिएगा और जहां मेरी सांस थमे वहीं धरती में गाड़कर एक चौरी बना देना”


लोग बेचूबीर को लेकर गांव की तरफ चले। आखिरकार बरही गांव पहुंचते-पहुंचते उनके प्राण पखेरू उड़ गए। तब लोगों ने बेचूबीर को वहीं जमीन के नीचे दफन कर एक चौरी बना दिया। इस बीच पति के घायल होने की जानकारी बेचूबीर की पत्नी को मिली, तो वह भागी-भागी बरही पहुंची, पति का दर्शन न कर सकीं। लोग बेचूबीर को समाधि देने के बाद नदीं में स्नान करने चले गए थे। पति के वियोग में वह पास के जंगल से लकडि़यां चुनकर अपने हाथों से चिता सजाई और उसमें बैठकर बेचूबीर की पत्नी सती हो गई। यह खबर जब उनके मायके वालों को लगी तो, उन्होंने चिता की राख लेकर बरही क्षेत्र में ही इमिलिया गांव के किनारे उनकी भी चौरी बना दी। कालान्तर में यह बरहिया माई के नाम से जानी जाने लगी।


बेचूबीर के कथित वंशज व चौरी के पुजारी ब्रजभूषण यादव बताते है कि घटना के लगभग एक वर्ष बाद बेचूबीर ने अपने परिजनों को स्वप्न में आदेश दिया कि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की दशमी की रात चौरी पर आकर पूरे विधि-विधान से पूजा करो, तो तुम सब का कल्याण होगा। स्वप्न मिले आदेश पर बेचूबीर के छोटे भाई सरजू ने चौरी की लिपाई-पुताई कर पूरे विधि-विधान से पूजा करना शुरू किया। फिर धीरे-धीरे वहां और लोग पूजा करने आने लगे फिर तो उनकी प्रसिद्धी बढ़ती गई और आज देश के कोने-कोने से लोग उनकी पूजा करने आते हैं।



बेचूबीर की चौरी पर चढ़ावे के रूप में पीली धोती, चुनरी, नारियल, इलायचीदाना, मिठाई, जनेऊ, खड़ाऊ आदि घर ले जाना उचित नहीं है। इसके चलते कोई भी श्रद्धालू प्रसाद के रूप में भी नहीं ले जा सकता, जब तक कि पुजारी द्वारा स्वयं उसे न दिया जाय। चौरी पर मुर्गा और बकरा भी चढ़ाया जाता है। शुरू-शुरू में तो इनकी बलि दी जाती थी, लेकिन अब यह हिंसा नहीं दिखाई देती। बताते है बेचूबीर द्वारा स्वप्न में दिए आदेश के चलते यह बंद हुआ है। हिंसा बंद होने से पुजारी परिवार की आय काफी बढ़ गई है। क्योंकि चौरी पर चढ़ा बकरा-मुर्गा पुनः बाजार में बेच दिया जाता है, जो बार-बार उसी चौरी पर चढ़ाया जाता है। तीन दिनों तक कई-कई हाथों से गुजरने के बाद बेचारे बेजुबान जानवर स्वतः मर जाते है।


बेचूबीर की चौरी के पुजारी ब्रजभूषण यादव बताते है कि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को लगभग शाम के समय शेर ने उन पर आक्रमण किया था और दशमी की रात बेचूबीर की मौत हुई थी। इसी के चलते यहां तीन दिनों का विशाल मेला लगता है। मेले में आए श्रद्धालू पहले भक्सी नदी में नहाकर अपना अंतःवस्त्र छोड़ देते हैं। इसके बाद वह बेचूवीर तथा बरहिया माई की पूजा करते हैं। मेले में भूत-प्रेत बाधितों के अलावा अन्य कारणों से दुखी या रोगी लोग भी आते हैं, इनमें संतान प्राप्ति की कामना करने वालों की संख्या काफी होती है। ऐसी मान्यता है कि पांच वर्ष तक नियमित आने पर उनकी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं, पर सच्चाई क्या है? इसका प्रत्यक्ष अनुभव तो यहां आने वाला ही कर सकता है।
बेचूबीर की तरह ही उनकी पत्नी यानि बरहिया माई की भी पूजा उनके कथित मायके वाले करते है। मेले के दौरान यहां काफी संख्या में प्रेत बाध से ग्रसित महिलाएं खेलती-हबुआती देखी जा सकती हैं। मान्यता है कि बेचूबीर की तरह यह भी अपने श्रद्धालुओं का दुख दूर करती है।

सच्चाई जो भी हो पर यह सच है कि लोगों का भला हो-न-हो, कथित बेचूबीर के वंशज व बरहिया माई के मायके के वंशज का इन तीन दिनों में वारा-न्यारा हो जाता है। इस मेले से होने वाली आय का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके मालिकाना हक को लेकर मामला कोर्ट तक में विचाराधीन रहा।

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