25 फ़रवरी 2013

"बेचूबीर का अद्भुत मेला"


‘आस्था या अंधविश्वास ’

बंगाल का जादू, बस्तर का टोना तो काफी मशहूर है, साथ ही ऐसे भी कई स्थान, चौरियां, ब्रह्मस्थान, दरगाह आदि हैं, जो भूत-प्रेतों को भगाने के कारनामों के लिए मशहूर हैं। इसके अलावा भी कुछ स्थान ऐसे भी हैं जो बेऔलाद मां-बाप के लिए वरदान साबित हो रहे हैं। कहते हैं कि यहां आस्था व विश्वास से पूजा आदि करने से उनकी सूनी गोंद भर जाती है। बेचूबीर बाबा की चौरी भी इसी क्रम में प्रसिद्ध है, यह स्थान भी प्रेंत बाधा से मुक्ति के अलावा संतानोत्पति के लिए भी विख्यात है।
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जनपद अंर्तगत चुनार तहसील में अहरौरा से लगभग 7-8 किलोमीटर दूर पश्चिम-दक्षिण में नक्सल प्रभावित क्षेत्र स्थिति बरही गांव के जंगली इलाके में बेचूबीर बाबा की चौरी है। यहां कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से एकादशी की सुबह तक वर्ष में एक बार विशाल मेला लगता है। यहां दूर-दराज से आए लोग तीन दिन तक रूककर पूजा आदि करते है। अंततः दशमी-एकादशी की भोर बाबा की मनरी बजने के बाद पुजारी के द्वारा फेंके गए चावल के चंद दाने प्रसाद के रूप में लेकर घर वापस लौटते हैं।


बरही गांव में बेचूबीर बाबा की चौरी स्थापित होने की अपनी अलग ही कहानी है। यादववंशी बेचूबीर मूलरूप से मध्य प्रदेश में सरगुजा के निवासी थे। बताया जाता है कि मिर्जापुर के अहरौरा में जहां आज जरगो बांध का विशाल जलाशय है, वहां पहले छोटे-छोटे अनेक गांव बसे थे। इन्हीं में एक गांव था गुलरिहां। वर्षों पहले बेचूबीर अपने परिवार के साथ आकर यहां बस गए थे। बेचूबीर भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। वह हमेशा अपने आराध्य देव की पूजा-पाठ करने में लगे रहते थे।
बेचूबीर बहुत ताकतवर और कुशल मल्ल योद्धा भी थे। जनपद का तत्कालीन प्रख्यात योद्धा वीर लोरिक बेचूबीर का परम भक्त था। बताते है एक बार बेचूबीर और लोरिक बरही के घनघोर जंगल में साधना कर रहे थे। उसी समय कुछ शत्रुओं ने अचानक वहां आक्रमण कर दिया, लोरिक तो वहां से भाग खड़ा हुआ किन्तु बेचूबीर की साधना नहीं टूटी और वह जंगल में अकेले ही रह गए।


कुछ देर बाद घूमते-घूमते एक शेर वहां पर आ गया। घनघोर जंगल में बेचूबीर को अकेला देख शेर ने उन पर आक्रमण कर दिया, तो उनका ध्यान टूटा। अदम्य शक्तिशाली होते हुए भी उन्होंने शेर का वध नहीं किया, बल्कि तीन दिनों तक लगातार उसका प्रतिरोध करते रहे, फिर भी शेर भागने का नाम नहीं ले रहा था। आखिर तीन दिनों में बेचूबीर को बुरी तरह घायल करने के बाद शेर भी वहीं गिरकर बेहोश हो गया।
उसी समय बेचूबीर को खोजते हुए कुछ लोग वहां आ गए। घायल देखकर सब उन्हें लेकर गांव की तरफ जाने लगे तो, क्षीण स्वर में बेचूबीर बोले, “मरने के बाद मेरे शरीर को आग के हवाले मत करिएगा और जहां मेरी सांस थमे वहीं धरती में गाड़कर एक चौरी बना देना”


लोग बेचूबीर को लेकर गांव की तरफ चले। आखिरकार बरही गांव पहुंचते-पहुंचते उनके प्राण पखेरू उड़ गए। तब लोगों ने बेचूबीर को वहीं जमीन के नीचे दफन कर एक चौरी बना दिया। इस बीच पति के घायल होने की जानकारी बेचूबीर की पत्नी को मिली, तो वह भागी-भागी बरही पहुंची, पति का दर्शन न कर सकीं। लोग बेचूबीर को समाधि देने के बाद नदीं में स्नान करने चले गए थे। पति के वियोग में वह पास के जंगल से लकडि़यां चुनकर अपने हाथों से चिता सजाई और उसमें बैठकर बेचूबीर की पत्नी सती हो गई। यह खबर जब उनके मायके वालों को लगी तो, उन्होंने चिता की राख लेकर बरही क्षेत्र में ही इमिलिया गांव के किनारे उनकी भी चौरी बना दी। कालान्तर में यह बरहिया माई के नाम से जानी जाने लगी।


बेचूबीर के कथित वंशज व चौरी के पुजारी ब्रजभूषण यादव बताते है कि घटना के लगभग एक वर्ष बाद बेचूबीर ने अपने परिजनों को स्वप्न में आदेश दिया कि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की दशमी की रात चौरी पर आकर पूरे विधि-विधान से पूजा करो, तो तुम सब का कल्याण होगा। स्वप्न मिले आदेश पर बेचूबीर के छोटे भाई सरजू ने चौरी की लिपाई-पुताई कर पूरे विधि-विधान से पूजा करना शुरू किया। फिर धीरे-धीरे वहां और लोग पूजा करने आने लगे फिर तो उनकी प्रसिद्धी बढ़ती गई और आज देश के कोने-कोने से लोग उनकी पूजा करने आते हैं।



बेचूबीर की चौरी पर चढ़ावे के रूप में पीली धोती, चुनरी, नारियल, इलायचीदाना, मिठाई, जनेऊ, खड़ाऊ आदि घर ले जाना उचित नहीं है। इसके चलते कोई भी श्रद्धालू प्रसाद के रूप में भी नहीं ले जा सकता, जब तक कि पुजारी द्वारा स्वयं उसे न दिया जाय। चौरी पर मुर्गा और बकरा भी चढ़ाया जाता है। शुरू-शुरू में तो इनकी बलि दी जाती थी, लेकिन अब यह हिंसा नहीं दिखाई देती। बताते है बेचूबीर द्वारा स्वप्न में दिए आदेश के चलते यह बंद हुआ है। हिंसा बंद होने से पुजारी परिवार की आय काफी बढ़ गई है। क्योंकि चौरी पर चढ़ा बकरा-मुर्गा पुनः बाजार में बेच दिया जाता है, जो बार-बार उसी चौरी पर चढ़ाया जाता है। तीन दिनों तक कई-कई हाथों से गुजरने के बाद बेचारे बेजुबान जानवर स्वतः मर जाते है।


बेचूबीर की चौरी के पुजारी ब्रजभूषण यादव बताते है कि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को लगभग शाम के समय शेर ने उन पर आक्रमण किया था और दशमी की रात बेचूबीर की मौत हुई थी। इसी के चलते यहां तीन दिनों का विशाल मेला लगता है। मेले में आए श्रद्धालू पहले भक्सी नदी में नहाकर अपना अंतःवस्त्र छोड़ देते हैं। इसके बाद वह बेचूवीर तथा बरहिया माई की पूजा करते हैं। मेले में भूत-प्रेत बाधितों के अलावा अन्य कारणों से दुखी या रोगी लोग भी आते हैं, इनमें संतान प्राप्ति की कामना करने वालों की संख्या काफी होती है। ऐसी मान्यता है कि पांच वर्ष तक नियमित आने पर उनकी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं, पर सच्चाई क्या है? इसका प्रत्यक्ष अनुभव तो यहां आने वाला ही कर सकता है।
बेचूबीर की तरह ही उनकी पत्नी यानि बरहिया माई की भी पूजा उनके कथित मायके वाले करते है। मेले के दौरान यहां काफी संख्या में प्रेत बाध से ग्रसित महिलाएं खेलती-हबुआती देखी जा सकती हैं। मान्यता है कि बेचूबीर की तरह यह भी अपने श्रद्धालुओं का दुख दूर करती है।

सच्चाई जो भी हो पर यह सच है कि लोगों का भला हो-न-हो, कथित बेचूबीर के वंशज व बरहिया माई के मायके के वंशज का इन तीन दिनों में वारा-न्यारा हो जाता है। इस मेले से होने वाली आय का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके मालिकाना हक को लेकर मामला कोर्ट तक में विचाराधीन रहा।

12 फ़रवरी 2013

बालिका का नाग से विवाह

छिंदवाड़ा में एक बालिका द्वारा नाग देवता से ब्याह किए जाने की अनोखी घटना हाल ही में सामने आई है । मामला शहर से करीब आठ किमी दूर स्थित ग्राम रोहना कलां का है । इसे आस्था कहें या अंधविश्वास, लेकिन हकीकत तो यही है । की शादी सितंबर, 2012 में पूरे धार्मिक रीति-रिवाजों के साथ नाग देव से कराई गई । इस अनोखे विवाह के प्रत्यक्षदर्शी रोहना कलां के सैकड़ों ग्रामवासी थे ।
छिंदवाड़ा के रोहना कलां में रहने वाले संपत भलावी की 13 वर्षीय पुत्री अंजलि कक्षा आठवीं की छात्रा है । उसे गहरी नींद के दौरान कुछ सपने आया करते थे । इन सपनों में एक नाग देव अंजलि से कहा करते थे कि तुम जनम-जनम से मेरी ही पत्नी हो, इस जन्म में भी तुम्हें मुझसे ही ब्याह करना होगा । यह ब्याह ऋषि पंचमी पर होगा ।
ऋषि पंचमी पर जब यह शादी नहीं हुई तो इसी रात अंजलि को सपने में फिर से नाग देव ने दर्शन देकर शादी की बात दोहराई । अंजलि ने यह बात जब अपने घर वालों को बताई तो वे सुनकर अवाक रह ग ए। उन्होंने गांव के बुजुर्गों से इस संबंध में सलाह मश्वरा कर इस शादी को संपन्न कराया ।
बुजुर्गों के मशविरे के मुताबिक ऋषि पंचमी पर अंजलि का श्रृंगार दुल्हन की तरह किया गया । अंजलि तैयार होकर घर से निकली और गांव में स्थित नाग देवता के मंदिर में पहुंची । उसने नाग देव की प्रतिमा पर पानी चढ़ाया, अगरबत्ती लगाई और पुष्प अर्पित किए । फिर शादी के लिए तैयार अग्नि कुंड के आसपास नाग देव की प्रतिमा के साथ सात फेरे लिए ।
अंजलि के भाई व भाभी ने उसके पैर धुलाए । इसके बाद अंजलि ने घर जाने की इच्छा व्यक्त की । थोड़ी देर बाद अंजलि घर से लौटकर आई, तब उसे ग्रामीणों ने कहा कि वह अपने असली रूप के दर्शन दें । ग्रामीणों की मांग पर अंजलि ने एक कटोरी में दूध मगवाया और उस कटोरी का आधा दूध पी लिया । आधे दूध से भरी कटोरी को वहीं सामने रख दिया । कुछ ही देर में इस कटोरी के दूध में नाग देव की प्रतिमा का हल्का-सा प्रतिबिंब दिखाई देने लगा ।

08 फ़रवरी 2013

'भूतों का मेला'

किसी के हाथ में जंजीर बंधी है, कोई नाच रहा है तो कोई सीटियां बजाते हुए चिढ़ा रहा है, ये वे लोग है जिन पर 'भूत' सवार है। यह नजारा है मध्यप्रदेश में बैतूल जिले के मलाजपुर गांव का जहां लगता है 'भूतों का मेला'।
मलाजपुर के इस बाबा के समाधि स्थल के आसपास के पेड़ों की झुकी डालियाँ उल्टे लटके भूत-प्रेत की याद ताजा करवा रही थी। ऐसी धारणा है कि जिस भी प्रेत बाधा से पीड़ित व्यक्ति को छोडऩे के बाद उसके शरीर में समाहित प्रेत बाबा की समाधि के एक दो चक्कर लगाने के बाद अपने आप उसके शरीर से निकल कर पास के किसी भी पेड़ पर उल्टा लटक जाता है।
प्रतिवर्ष मकर संक्राति के बाद वाली पूर्णिमा को लगने वाले इस भूतों के मेले में आने वाले सैलानियों में देश-विदेश के लोगों की संख्या काफी मात्रा में होती है। खुली नंगी आँखों के सामने दुनिया भर से आये लोगों की मौजूदगी में हर साल होने वाले इस मेले में लोग डरे-सहमे वहाँ पर होने वाले हर पल का आनंद उठाते हैं। गुरू साहब बाबा की समाधि पर लगने वाले वाले विश्व के भूतों के एक मात्र मेले में पूर्णिमा की रात का महत्व काफी होता है। यह मेला एक माह तक चलता है। ग्राम पंचायत मलाजपुर इसका आयोजन करती है। कई अंग्रेजों ने पुस्तकों एवं उपन्यासों तथा स्मरणों में इस मेले का जिक्र किया है। इन विदेशी लेखकों के किस्सों के चलते ही हर वर्ष कोई ना कोई विदेशी बैतूल जिले में स्थित मलाजपुर के गुरू साहेब के मेले में आता है।
सतपुड़ा में मध्यप्रदेश के दक्षिण में बसे गोंडवाना क्षेत्र के जिलो में से एक बैतूल विभिन्न संस्कृतियों एवं भिन्न-भिन्न परंपराओं को मानने वाली जातियों-जनजातियों सहित अनेकों धर्मों व संस्कृतियों के मानने वाले लोगो से भर पूरा है। इस क्षेत्र में पीढ़ियों से निवास करते चले आ रहे इन्ही लोगों की आस्था एंव अटूट विश्वास का केन्द्र कहा जाने वाला गुरू साहेब बाबा का यह समाधि स्थल पर आने-वाले लोगों के बताए किस्से-कहानियाँ लोगों को बरबस इस स्थान पर खींच लाती हैं।
क्षेत्र की जनजातियों एवं अन्य जाति, धर्म व समुदायों के बीच आपसी सदभाव के बीच इन लोगों के बीच चले आ रहे भूत-प्रेत, जादू-टोना, टोटका एवं झाड़-फूंक का विश्वास यहाँ के लोगों के बीच सदियों से प्रचलित मान्यताओं के कारण अमिट है।
देवी-देवता-बाबा के प्रति यहाँ के लोगों की अटूट आस्था आज भी देखने को मिलती है। विशेषकर आदिवासी अंचल की गोंड, भील एवं कोरकू जनजातियों में जिसमें पीढ़ी-पीढ़ी से मौजूद टोटका, झाड़ फूंक एवं भूतप्रेत-चुड़ैल सहित अनेक ऐसे रीति-रिवाज निवारण प्रक्रिया आज भी पाई जाती है।
अकसर देखने को मिलता है कि कमजोर दिल वाले व्यक्तियों के शरीर के अंदर प्रवेशित होकर व्यक्ति को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तरीकों से मानसिक स्थिति असंतुलित करके कष्ट पहुंचाती है। इन्हीं परेशानियों व भूतप्रेत बाधाओं से मुक्ति दिलाने वाले स्थानों में मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के ग्राम मलाजपुर में स्थित गुरूसाहब बाबा का समाधि स्थल अब पूरी दुनिया में जाना-पहचाना जाने लगा है। अभी तक यहाँ पर केवल भारत के विभिन्न गांवों में बसने वाले भारतीयो को जमावड़ा होता था लेकिन अब तो विदेशो से भी विदेशी सैलानी वीडियो कैमरों के साथ -साथ अन्य फिल्मी छायाकंन के लिए अपनी टीम के साथ पहुँचने लगे है।
मलाजपुर के गुरू साहेब बाबा के पौराणिक इतिहास के बारे में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। जनश्रुति है कि बैतूल जिला मुख्यालय से 34 किलोमीटर दूर विकासखंड चिचोली जो कि क्षेत्र में पाई जाने वाली वन उपजों के व्यापारिक केन्द्र के रूप में प्रख्यात हैं। इसी चिचोली विकासखंड से 8 किलोमीटर दूर से ग्राम मलाजपुर जहाँ स्थित हैं श्रद्धा और आस्थाओं का सर्वजातिमान्य श्री गुरू साहेब बाबा का समाधि स्थल।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार इस स्थल का पौराणिक इतिहास यह है कि विक्रम संवत 1700 के पश्चात आज से लगभग 348 वर्ष पूर्व ईसवी सन 1644 के समकालीन समय में गुरू साहब बाबा के पूर्वज मलाजपुर के पास स्थित ग्राम कटकुही में आकर बसे थे। बाबा के वंशज महाराणा प्रताप के शासनकाल में राजस्थान के आदमपुर नगर के निवासी थे। अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य छिड़े घमसान युद्ध के परिणामस्वरूप भटकते हुये बाबा के वंशज बैतूल जिले के इसरूरस्थ क्षेत्र में आकर बस गए। बाबा के परिवार के मुखिया का नाम रायसिंह तथा पत्नी का नाम चंद्रकुंवर बाई था जो बंजारा जाति के कुशवाहा वंश के थे। इनके चार पुत्र क्रमश: मोतीसिंह, दमनसिंह, देवजी (गुरूसाहब) और हरिदास थे।
श्री देवजी संत (गुरू साहब बाबा) का जन्म विक्रम संवत 1727 फाल्गुन सुदी पूर्णिमा को कटकुही ग्राम में हुआ था। बाबा का बाल्यकाल से ही रहन सहन खाने पीने का ढंग अजीबो-गरीब था। बाल्यकाल से ही भगवान भक्ति में लीन श्री गुरू साहेब बाबा ने मध्यप्रदेश के हरदा जिले के अंतर्गत ग्राम खिड़किया के संत जयंता बाबा से गुरूमंत्र की दीक्षा ग्रहण कर वे तीर्थाटन करते हुये अमृतसर में अपने ईष्टदेव की पूजा आराधना में कुछ दिनों तक रहें इस स्थान पर गुरू साहेब बाबा को ‘देवला बाबा' के नाम से लोग जानते पहचानते हैं तथा आज भी वहाँ पर उनकी याद में प्रतिवर्ष विशाल मेला लगता है। इस मेले में लाखों भूत-पेत बाधा से ग्रसित व्यक्तियो को भूत-प्रेत बाधा से मुक्ति मिलती है। गुरू साहेब बाबा उक्त स्थानों से चंद दिनों के लिये भगवान विश्वनाथ की पुण्य नगरी काशी प्रवास पर गये, जहां गायघाट के समीप निर्मित दरभंगा नरेश की कोठी के पास बाबा का मंदिर स्थित है।
बाबा के चमत्कारों व आशीर्वाद से लाभान्वित श्रद्धालु भक्तों व भूतप्रेतों बाधा निवारण प्रक्रिया के प्रति आस्था रखने वाले महाराष्ट भक्तों द्वारा शिवाजी पार्क पूना में बाबा का एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया गया। गुरू साहब बाबा की समाधि स्थल पर देखरेख हेतु पारिवारिक परंपरा के अनुरूप बाबा के उतराधिकारी के रूप में उनके ज्येष्ठ भ्राता महंत गप्पादास गुरू गद्दी के महंत हुये। तत्पश्चात यह भार उनके सुपुत्र परमसुख ने संभाला उनके पश्चात क्रमश: सूरतसिंह, नीलकंठ महंत हुये। इनकी समाधि भी यही पर निर्मित है। वर्तमान में महंत चंद्रसिंह गुरू गादी पर महंत के रूप में सन 1967 से विराजित हुये। यहां पर विशेष उल्लेखनीय यह है कि वर्तमान महंत को छोड़कर शेष पूर्व में सभी बाबा के उत्तराधिकारियों ने बाबा का अनुसरण करते हुये जीवित समाधियाँ ली।
भूत-प्रेत बाधा निवारण के लिये गुरूसाहब बाबा के मंदिर भारत भर में विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस घोर कलयुग में जब विज्ञान लोगों की धार्मिक आस्था पर हावी है उस समय में यह सत्य है कि भूत प्रेत बाधा और अनुभूति को झुठलाया नहीं जा सकता है। भूत-प्रेतों के बारे में पढ़ा लिखा तथाकथित शिक्षित तबका भले ही कुछ विशिष्ट परिस्थितियों से प्रभावित होकर इन सब पर अश्विास व्यक्त करे लेकिन बाबा की समाधि के चक्कर लगाते ही इस भूत-प्रेत बाधा से पीडि़त व्यक्ति स्वंय ही बकने लगता है कि वह क्या है ? तथा क्या चाहता है ?
बाबा की समाधि के पूरे चक्कर लगाने के पहले ही बाबा के हाथ-पैर जोड़ कर मिन्नत मांगने वाला व्यक्ति का सर पटकर कर माफी मांगने के लिए पेट के बल पर लोटने का सिलसिला तब तक चलता है जब तब कि उसके शरीर से वह तथाकथित भूत यानि कि अदृश्य आत्मा निकल नहीं जाती।
एक प्रकार से देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि ‘भूत-प्रेत' से आशय छोटे बच्चों या विकलांग बच्चों की आत्मा होती है। ‘पिशाच अधिकांशत: पागल, दुराचारी या हिसंक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति या अत्यधिक क्रोधी व्यक्ति का भूत होता है। स्त्री की अतृप्त आत्माओं में चुड़ैल, दुखी, विधवा, निसंतान स्त्री अथवा उस महिला भूत होता है जिसके जीवन की अधिकांश इच्छायें या कामनायें पूर्ण नहीं हो पाई हों।
ऐसे व्यक्ति को सबसे पहले गुरूसाहब बाबा की समाधि के समीप से बहती बंधारा नदी पर स्नान करवाने के बाद पीड़ित व्यक्ति को गुरूसाहब बाबा की समाधि पर लाया जाता है। जहां अंकित गुरू साहब बाबा के श्री चरणों पर नमन करते ही पीड़ित व्यक्ति झूमने लगता है। उसकी सांसों में अचानक तेजी आ जाती है, आँखें एक निश्चित दिशा की ओर स्थिर हो जाती है और उसके हाथ पैर ऐंठने लगते हैं। उस व्यक्ति में इतनी अधिक शक्ति आ जाती है कि आस-पास या साथ में लेकर आये व्यक्तियों को उसे संभालना पड़ता है।
बाबा की पूजा अर्चना की प्रक्रिया शुरू होते ही प्रेत बाधा पीड़ित व्यक्ति के मुंह से अपने आप में परिचय देती है, पीड़ित व्यक्ति को छोड़ देने की प्रतिज्ञा करती है। इस अवस्था में पीड़ित आत्मा विभूषित हो जाती है और बाबा के श्री चरणों में दंडवत प्रणाम कर क्षमा याचना मांगता है। एक बात तो यहाँ पर दावे के साथ कही जा सकती है कि प्रेत बाधा से पीड़ित व्यक्ति यहां आता है तो वह निश्चित ही यहां से प्रेत बाधा से मुक्त होकर ही जाता है।
धार्मिक आस्था के केन्द्र मलाजपुर में श्रद्धालुओं की उमड़ती भीड़ में बाबा की महिमा और चमत्कार के चलते ही पौष पूर्णिमा से एक माह तक यहाँ पर लगने वाला मेला बाबा के प्रति लोगों के विश्वास को प्रदर्शित करता है।
यहां पर सबसे बड़ा जीवित चमत्कार यह है कि यहाँ पर अपनी अभिलाषा पूरी होने पर भक्तों द्वारा स्वयं के वजन भर गुड़ की चढ़ौती तुलादान कर बाबा के चरणों में अर्पित कर गरीबों में प्रसाद बांट दिया जाता है। बाबा के श्री चरणों में चढ़ौती किए गए गुड़ को एक गोदाम में रखा गया है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि यहाँ पर हजारों टन गुड़ होने के बाद भी मक्खी के दर्शन तक नहीं है। यहाँ पर गुड़ पर मक्खी होने की कहावत भी झूठी साबित होती है।
दुनिया भर से अनेक लोग मध्यप्रदेश के आदीवासी बैतूल जिले के मलजापुर स्थित ग्राम में बरसों पहले पंजाब प्रांत के गुरूदासपुर जिले से आये बाबा गुरू साहेब समाधि पर लगने वाले दुनिया के एकलौते भूतो के मेले में आते हैं। नेशनल हाइवे 69 पर स्थित बैतूल जिले के इसाई मिशनरी द्वारा विश्व प्रसिद्ध पाढऱ चिकित्सालय मार्ग से दस किलोमीटर दूर पर स्थित आठंवा मिल से मलाजपुर के लिए एक सड़क जाती है। मलाजपुर जाने के लिए बैतूल हरदा मार्ग पर स्थित ग्राम पंचायत चिचोली से भी एक सड़क जाती है।
पिछले वर्ष जर्मनी की मीडिया टीम इस विश्व प्रसिद्ध गुरू साहेब बाबा के भूत मेले की रात भर के उस डरा देने वाले मंजर का छायाकंन एवं चित्राकंन करके जा चुकी है। महाराणा प्रताप के वंशज रहे बाबा के परिजन मुगलों के आक्रमण के शिकार हुये बाबा अपने छोटे भाई हरदास तथा बहन कसिया बाई के साथ आये थे। चिचोली में बाबा हरदास की तथा मलाजपुर में गुरू साहेब बाबा तथा उनकी बहन कसिया बाई की समाधि है। बाबा के भक्तों में अधिकांश यादव समाज के लोग हैं जो कि आसपास के गांवों में सदियों से रहते चले आ रहे हैं।
सबसे बड़ी विचित्रता यह है कि बाबा के भक्तों का अग्नि संस्कार नहीं होता है। बाबा के एक अनुयायी के अनुसार आज भी बाबा के समाधि वाले इस गांव मलाजपुर में रहने वाले किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात उसके शव को जलाया नहीं जाता है चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का क्यों ना हो। इस गांव के सभी मरने वालों को उन्हीं के खेत या अन्य स्थान पर समाधि दी जाती है।
बैतूल जिले के चिचोली जनपद की मलाजपुर ग्राम पंचायत में सदियों से हजारों की संख्या मे बाबा के अनुयायी अनेक प्रकार की मन्नत मांगने साल भर आते है।

07 फ़रवरी 2013

सेक्स की प्यास बुझाने के लिए नर कंकाल का सहारा

उत्तर-पश्चिम स्वीडन में एक महिला ने अपनी अजीबोगरीब चाहत की खातिर ऐसा रास्ता अपनाया जिसे सुनकर आप चौंके बिना नहीं रह पाएंगे।
पुलिस को मामले का पता तब चला, जब सितंबर में महिला के अपार्टमेंट से एक गोली चलाई गई।
गोली चलने के मामले की तफतीश के लिए पहुँची पुलिस को महिला के घर से मानव कंकाल के 100 हिस्से मिले।
नेक्रोफिलिया की दोषी 37 वर्षीया इस महिला पर मंगलवार को गोटेबोर्ग डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में औपचारिक रूप से मृतक की शांति के उल्लंघन का मामला दर्ज करवाया गया।
पुलिस ने जब घर की अच्छी तरह से तलाशी ली तो उन्हें एक सीडी भी मिली, जिसका टाइटल था- "माय नेक्रोफिलिया"
इसके साथ ही कई ऐसी फोटो भी मिली हैं, जिनमें महिला को कंकाल के साथ सोते, चूमते व सेक्स करते हुए पाया गया।
जहाँ एक ओर साधारण इंसान कंकाल के पास भी जाने से डरता है वहीं यह महिला कंकाल के साथ लिपटकर सोती थी।
महिला ने अपने ऊपर लगे आरोपों से साफ इंकार किया है।
महिला ने बताया कि वह इन कंकालों को केवल ऐतिहासिक महत्व के उद्देश्यों की खातिर जमा कर रही थी।
प्रोसिक्यूटर क्रिस्टिना एरनबॉर्ग स्टाफ्स के अनुसार गोपनीय जांच में पाया गया है कि महिला ने इन कंकाल का प्रयोग सेक्सुअल एक्ट्स में भी किया गया है।
पुलिस ने महिला की कंकाल के साथ सोते हुए कुछ फोटो भी जारी की हैं।
लंदन : क्या आपने कभी ऐसा सुना है कि किसी ने नर कंकाल यानि मृत व्यक्ति के साथ सेक्स किया है? जी हां, ऐसा ही किस्सा सुनने में आया है! यदि रात को सोते समय आपने ख्याबों में कोई भूत आपसे सेक्स करने लगे तो क्या होगा? एकदम से आप नींद से जाग उठेंगे और डर जाएंगे।
लेकिन स्वीडन में एक महिला ने न सिर्फ नर कंकाल को अपने पास रखा, बल्कि उसके साथ सेक्स भी किया। इतना ही नहीं इन चौंका देने वाली तस्वीरों को पुलिस ने जारी भी किया है। इन तस्वीरों में महिला को गोथेनबर्ग स्थित अपने फ्लैट पर इस नर कंकाल के साथ शारीरिक संबंध बनाते हुए दिखाया गया है। महिला कंकाल को गले लगा रही है कई बार उसे जीभ से चाटते हुए भी दिखाया गया है।
ब्रिटिश टेबलायड 'द सन' ने इस खबर को सबसे पहले जगजाहिर किया। अब एक अदालत में उक्त महिला को मरे हुए शख्स की शांति भंग करने का आरोपी बनाया गया है। अगर महिला इस मामले में दोषी पाई जाती है तो उसे दो साल की सजा हो सकती है।
सरकारी वकील ने बताया कि 37 साल की इस महिला ने छह खोपड़ी, एक रीढ़, कुछ हड्डियों को एक ड्रिल, बॉडी बैग और मुर्दाघर की तस्वीरों के साथ सीक्रेट कम्पार्टमेंट में रखा था। पुलिस ने बताया कि सितंबर में महिला की गिरफ्तारी के बाद उसके अपार्टमेंट से नर कंकाल के साथ अंतरंग तस्वीरें और साथ ही दो सीडी जिनमें से एक पर माय नेक्रोफीलिया (मृत शरीर के साथ लगातार होने वाले सेक्स का आकर्षण) और माय फर्स्ट एक्सपीरिएंस लिखा था।
बताया जाता है कि इंटरनेट फोरम पर महिला ने एक बार लिखा कि मेरी नैतिकता मेरी सीमाओं को तय करती है और इसके लिए मैं सजा के लिए तैयार हूं। मैं अपने पुरुष को इस तरह देखना चाहती हैं, चाहे वह मृत हो या जीवित। मानव कंकाल मुझे सेक्सुअल खुशी पाने की स्वतंत्रता देता है।
अदालत में महिला का ट्रायल अगले हफ्ते होगा। प्रॉसिक्यूटर हेरेनबॉर्ग-स्टाफा ने बताया कि उसने ढांचे को बेहद ही शर्मनाक और अनैतिक ढंग से रखा था, जबकि बचाव पक्ष ने नर कंकाल रखने की बात तो स्वीकार की है लेकिन उनके साथ किसी तरह कि बुरे बर्ताव की बात नहीं मानी है।

रहस्यमयी झील : पांडुजी


दक्षिणी अफ्रीका के प्रांत उत्तरी ट्रांसवाल में पांडुजी नाम की एक अद्भुत झील है। इस झील के बारे में कहा जाता है कि इसके पानी को पीने के बाद कोई जिन्दा नहीं रहा और न ही आज तक कोई वैज्ञानिक इसके पानी का रासायनिक विश्लेषण कर पाया है। मुटाली नामक जिस नदी से इस झील में पानी आता है, उसके उद्गम स्थल का पता लगाने की भी कोशिशें की गईं मगर इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिल सकी। खास बात यह भी है कि इस झील का पानी अजीबो-गरीब तरीके से ज्वार भाटे की तरह उठता है व गिरता है।
सन् 1947 में हैडरिक नामक एक किसान ने झील में नाव चलाने का प्रयास किया। नाव सहित जैसे ही वह झील के बीचों-बीच पहुँचा, रहस्यमय तरीके से गायब हो गया। हैडरिक और उसकी नाव का कहीं कोई पता नहीं चल पाया।
सन् 1953 में बर्न साइड नामक एक प्रोफेसर ने इस झील के रहस्य से पर्दा उठाने का बीड़ा उठाया। प्रोफेसर बर्न साइड अपने एक सहयोगी के साथ अलग-अलग आकार की 16 शीशियाँ लेकर पांडुजी झील की तरफ चल पड़े। उन्होंने अपने इस काम में पास ही के बावेंडा कबीले के लोगों को भी शामिल करना चाहा, लेकिन कबीले के लोगों ने जैसे ही पांडुजी झील का नाम सुना तो वे बिना एक पल की देर लगाए वहाँ से भाग खड़े हुए। कबीले के एक बुजुर्ग आदिवासी ने बर्न साइड को सलाह दी कि अगर उन्हें अपनी और अपने सहयोगी की जान प्यारी है तो पांडुजी झील के रहस्य को जानने का विचार फौरन ही छोड़ दें। उसने कहा कि वह मौत की दिशा में कदम बढ़ा रहा है क्योंकि आज तक जो भी झील के करीब गया है उसमें से कोई भी जिन्दा नहीं बचा।
प्रोफेसर बर्न साइड वृद्ध आदिवासी की बात सुनकर कुछ वक्त के लिए परेशान जरूर हुए, लेकिन वे हिम्मत नहीं हारे, साहस जुटाकर वह फिर झील की तरफ चल पड़े। एक लंबा सफर तय कर जब वे झील के किनारे पहुँचे तब तक रात की स्याही फ़िज़ा को अपनी आगोश में ले चुकी थी। अंधेरा इतना घना था कि पास की चीज भी दिखाई नहीं दे रही थी। इस भयानक जंगल में प्रोफेसर बर्न साइड ने अपने सहयोगी के साथ सुबह का इंतजार करना ही बेहतर समझा।
सुबह होते ही बर्न साइड ने झील के पानी को देखा, जो काले रंग का था। उन्होंने अपनी अंगुली को पानी में डुबोया और फिर जबान से लगाकर चखा। उनका मुंह कड़वाहट से भर गया। इसके बाद बर्न साइड ने अपने साथ लाई गईं शीशियों में झील का पानी भर लिया। प्रोफेसर ने झील के आसपास उगे पौधों और झाडियों के कुछ नमूने भी एकत्रित किए।
शाम हो चुकी थी। उन्होंने और उनके सहयोगी ने वहाँ से चलने का फैसला किया। वे कुछ ही दूर चले थे कि रात घिर आई। वे एक खुली जगह पर रात गुजारने के मकसद से रुक गए। झील के बारे में सुनीं बातों को लेकर वे आशंकित थे ही, इसलिए उन्होंने तय किया कि बारी-बारी से सोया जाए।
जब प्रोफेसर बर्न साइड सो रहे थे तब उनके सहयोगी ने कुछ अजीबो-गरीब आवाजें सुनीं। उसने घबराकर प्रोफेसर को जगाया। सारी बात सुनने पर बर्न साइड ने आवाज का रहस्य जानने के लिए टार्च जलाकर आसपास देखा, लेकिन उन्हें कुछ भी पता नहीं चला। आवाजों के रहस्य को लेकर वे काफी देर तक सोचते रहे।
सवेरे चलने के समय जैसे ही उन्होंने पानी की शीशियों को संभाला तो वे यह देखकर हैरान रह गए कि शीशियाँ खाली थीं। हैरानी की एक बात यह भी थी कि शीशियों के ढक्कन ज्यों के त्यों ही लगे हुए थे। वे एक बार फिर पांडुजी झील की तरफ चल पड़े।
लेकिन बर्न साइड खुद को अस्वस्थ महसूस कर रहे थे, उनके पेट में दर्द भी हो रहा था। वे झील के किनारे पहुँचे। बोतलों में पानी भरा और फिर वापस लौट पड़े। रास्ते में रात गुजारने के लिए वे एक स्थान पर रुके, लेकिन इस बार उनकी आंखों में नींद नहीं थी। सुबह दोनों यह देखकर फिर हैरान रह गए कि शीशियाँ खाली थीं।
बर्न साइड का स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा था, इसलिए वे खाली हाथ ही लौट पड़े। घर पहुँचने पर नौवें दिन बर्न साइड की मौत हो गई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक आंतों में सूजन आ जाने के कारण बर्न साइड की मौत हुई थी।
प्रोफेसर द्वारा एकत्रित झील के समीप उगे पौधों के नमूने भी इतने खराब हो चुके थे कि उनका परीक्षण कर पाना मुमकिन नहीं था।
बर्न साइड का जो सहयोगी उनके साथ पांडुजी झील का रहस्य जानने गया था, उनकी मौत के एक हफ्ते बाद हो गई। वह पिकनिक मनाने समुद्र तट पर गया, वह एक नाव में बैठकर समुद्र के किनारे से बहुत दूर चला गया। दो दिन बाद समुद्र तट पर उसकी लाश पाई गई।
आज तक इस रहस्य का पता नहीं लग पाया है कि उसकी मौत महज एक हादसा थी या खौफनाक पांडुजी झील का अभिशाप। इस अभिशप्त झील के बारे में जानकारी हासिल करने वालों की मौत भी इस झील के रहस्य की तरह ही एक रहस्य बनकर रह गई है।